Wednesday, February 16, 2022

पेन मेरा


आज पेन को देखकर याद आया कब से खाली पड़ा था ये कागज़ जिसे हमेशा ये सोचकर संजोय रखता था की जब लिखूंगा इसपे कुछ लिखूंगा  और ये कहकर न जाने कितने कागज़ संजो दिए गए पर वो पेन यूँ ही सूख गया बिना अपनी स्याही को कागज़ पर उतारे ना जाने किस कोने में पड़ा था ये सोचकर एक दिन तुम्हें मेरी याद आएगी और उस दिन मैं  तुम्हरी ऑंखों में चमकता नज़र आऊंगा। तुम कई बार कोशिस  करोगे जोरो से ये भी हो सकता है अपने हाथों से रगड़ कर मेरे ठन्डे जिस्म को गर्म करने की कोशिश भी करो और जब तुम्हारी हिम्मत जवाब दे जाएगी तब तुम्हें मेरी जान में जान आती नजर आएगी और तुम्हें उस पल ये एहसास होगा कि मैं क्या खो रहा था ? किसके पीछे भाग रहा था? खैर दौड़ती-भागती जिंदगी में अगर तुम्हें मेरी याद आयी तो ये मेरी खुशकिस्मती है क्यूंकि  पहले तो सिर्फ सपने ही वर्चुअल थे और तुम्हारी  इमेजिनेशन जो तुम किसी के कहने पर करते थे अब तो सब कुछ वर्चुअल ही हो रखा है। जो तुम्हारे होंठो के हिलने से लेकर पलकों के झपकने, तुम्हरी उँगलियों के छुअन मात्र से ही सब अंजाम कर देता है। 

ये कोन था ? 

खैर...... आखिर में बोल ही पड़ा पेन मेरा पर अब कोशिस करूँगा की कम से कम एक मुलाक़ात तो रोज करू तुमसे, उतारूं तुम्हें भी किसी कैनवास या उड़ते हुए उन कागज़ो पर जिन पर छापखाने की स्याही हो एक तरफ और घोलकर उन सारी बातों को जो आतें जातें रास्तों पर कभी कभी आवारा सड़को इतफ़ाक़ से टकरा जाती है मुझ से..

Monday, February 14, 2022

सर्दी और सूरज की फर्स्ट डेट


 घड़ी में सुबह के साढ़े चार बज रहे थे रोज की तरह आज भी सर्दी अपनी वर्दी उतारने को तैयार थी क्यूँकि सूरज से जो मिलने वाली थी। वैसे सूरज से उसकी कुछ ख़ास तो नई बनी अब तक पर बसंत आतें ही वो करीब आने लगतें है और ऐसा भी नहीं है कि बसंत पहली बार आया हो उनकी लाइफ में इससे पहले भी ना जाने कितने बसंत आएं और चले गए  पर सर्दी कभी ऐसी आशावादी ना थी। ना जाने पहले ऐसा क्या हुआ था कि सर्दी अपने समय पर रहती तो थी पर खोयी खोयी लगती थी। कभी रूखापन,कभी मनमानापन तो कभी हफ्तों सूरज के सामने ना जाना कभी-कभी तो इतनी कठोर हो जाया करती की मानव को ही जमा दे पर सर्दी हमेशा ऐसी ना  थी। हाँ कुछ अखबारों से सुना था कि  क्लाइमेट चेंज हो रहा जिससे उसकी लाइफ में भी बहुत तेजी से बदलाव आ रहे है उसे खुद ही नहीं पता चल रहा था की क्या हो रहा है। उसके लाइफ साइकिल में तेज़ी से बदलाव आ रहा था इसलिए वो हमेशा खोयी रहती थी और किसी को अपनी लाइफ में लाकर वो उसे खोना नहीं चाहती थी और किसी एक को दोष भी नहीं दे सकती थी कि क्यों हो रहा है ये?  पर उसे अच्छा लगता था शरद आते ही गुस्से में झुण्ड बनाकर बैठी पत्तियों के संग खेलना जो इसलिए गुस्सा थी कि पेड़ से जो अलग हो  गयी थी पर हवा के समेटने पर उड़कर  दूर तक चली जाती थी।  पेड़ों पर नयी  कोपलों को  देखकर उसका भी मन झूमने लगता था। घने कोहरे में वृक्षों को अपने आगोश में लेकर लुकाछुपी खेलने में उसे बहुत मजा आता था  पर क्लाइमेट में हो रहे बदलाव ने मानो उससे ये सब छीन सा लिया हो। पर अब उसमें कुछ नयी उमंग सी जगी है इस नयी बसंत को लेकर वो घंटो सूरज का इंतज़ार करती है और ओस की गिरती हर बूँद पर उसका ध्यान होता है क्यूंकि सूरज के आने पर वो चमक  जो उठती थी और सूरज का
आभास सर्दी को हो जाता था। ❤

खैर अभी तो घडी में शार्प 5 ही बजे है अभी समय था सूरज के आने में इसी सन्नाटे के बीच फ़ोन का अलार्म जो अपने में ही सेट रहने लगा था अचानक से बज उठता  है अब उसे मतलब नहीं रहा था किसी से क्यूंकि पूरी सर्दीभर किसी ने उसको रेस्पेक्ट ही नहीं दिया।  कभी भी उसकी टोन को सुनकर कोई राइट टाइम ही नहीं हुआ हमेशा आंखें बंदकर के ही रजाई के भीतर से ही उसे म्यूट कर दिया गया। अब भला इतना सब कुछ सहने के बाद किसका ईगो हर्ट नहीं होगा तो बस तब से अपने में ही लोनली हो गया बेचारा। पर रहना है तो सहना वाले टैग के साथ जी रहा है अपनी जिंदगी ये सोच कर कि मौसम बदलेगा और मिस्टर राइट अपनी लाइफ को लेकर टाइट होंगे फिर अपना टाइम आएगा, ये  मानकर वह कोने में फ़ोन के साथ सो गया। तभी सर्दी को पछियों के चहचाने की आवाज़ सुनाई पड़ती है उसके चेहरे पर एक  घनी सी स्माइल आने लगती है वो जैसी ही बाहर आकर देखती है पत्तियों पर ओस की बूँदें चमक उठती है। वह देखती है सूरज को चमकते हुए और खो जाती है उसे पता ही नहीं चलता कि कब सूरज उसके इतना नजदीक आ गया... फिर?.......💖💖💖💖 फिर क्या दोनों नयी डेट पर जाते है। 

Sunday, January 16, 2022

ये मंजिल कोई और थी ,कोई और था ये रास्ता।



 ना जाने किस अँधेरे में चल रहा हूँ 

की हर तरफ है सन्नाटा,

मैं  तो रौशनी लिए चल  रहा था 

फिर मेरे पाँव क्यों लगा कांटा?


                                                        हाँ, है पाँव नंगे मेरे 

                                                       है रेत में भी कदम धरे ,

                                                       धसने से मैं वाकिफ था 

                                                        फिर पैर मेरे क्यों जले। 


कुछ दूर से ही दिखता था 

पानी का कोई नुक्ता था,

फिर क्यों चली हवा ऐसी 

अब कुछ नहीं है दिखता। 


                                                                          है फिर वही सन्नाटा 

                                                                           दूर तलक यहाँ,

                                                                            है कोई नहीं आता,

                                                                          किसको दूँ आवाज़ मैं 

                                                                     किसको बनाऊ हमराज मैं,


                                                                    ये मंजिल कोई और थी 

                                                                  कोई और था ये  रास्ता। 

                       

Saturday, February 29, 2020

29 फरवरी






 मुझे पता है अब तुम लगभग चार साल बाद आओगी और मुझे ये भी पता है इन सालों में बहुत कुछ बदल जायेगा.जहाँ घर से निकलती गलियां सड़कों में तब्दील होंगी, सड़के महामार्गो मेंगाँव शहर बनेंगे और शहर महानगरों में,न जाने कितने मौके आएंगे तुमको भूलने के जिसमें दिन हफ्ता, हफ्ते,महीने और महीने साल और साल कैलेंडर वर्ष बन जायंगे और इन चार सालो में कई कैलेंडर बदलेंगे पर मेरे दिल के कैलेंडर में तुम हमेशा रहोगी.अपने अनोखेपन और नई खुशबू से साल की हर पतझड़ के बाद अपने रंगों से नए जीवन को भरोगी. इससे पहले भी कई बार तुम्हें देखा और अनजान बनता रहा शायद समझ न थी या तुम कॉमन से लगती थी पर अब लगा की हाँ तुम सच में जा रही हो इसलिए डर लगता है.अभी कुछ ही दिन हुए थे तुम्हें सच में जानके एक बार तुमको लेकर थोड़ी बहस भी हुई पर थोड़ा कम वाकिफ था तुमसे पर अब तो लगता है बहुत देर कर दी तुमको जानने में बहुत कुछ समेट रखा था तुमने अपने अन्दर पता नहीं मेरे लिए तुम क्या सोचती थी.मुझे नहीं पता पर हाँ वैलेंटाइन वीक में तुमसे यह जानने की इच्छा जरुर हुई एक बार की क्या सचमच तुम वैसी हो जैसा में सुनता आया हूँ या तुम महज एक महीने की अंतिम तारीख हो जो हर साल 28 से रेस करते हुए हर चौथे साल में जीत जाती है और जिसे वही मुकाम हासिल होता जो बाकि महीनों में 30 और 31 को. खैर जो भी हो फ़िलहाल तुम जा रही हो.तुम्हारा इंतजार तो हमेशा से करता था पर इस बार तुम बहुत ही ख़ास थी और हाँ आगे भी रहोगी पर ‘आई विश’ में तुम्हें फिर से पीछे ले जाता और कुछ पल रोक के वह सबकुछ पूछता जो शायद कल तक मेरे अन्दर ख़त्म हो जाये.चलो फिर आना ‘सायो नारा’.

Thursday, February 6, 2020

चादर

किस ख्वाब में उलझे हो जनाब?
एक काली रात
एक आधा चांद
सरसरती हवा में
कपकपाते तारें,
ये अभी तक इंतजार में हैं।
गर सुलझ गए हो तुम
तो बुन भी दो ना
इक चादर हमारी भी
कब तक यूंही बैठोगे
किसी के ख्वाब लिए ?
अब बुन भी दो ना
गर सुलझ गए हो तुम
एक चादर हमारी भी ।

Sunday, September 2, 2018

जुगनू



                         जुगनू




कहाँ छुपा के रखें है तुमने जुगनू ? 
जो शाम होते ही दिखतें थे,
अब तो सुबह भी हो जाती है तब भी नहीं 
दिखतें,
रात के अंधेरों में, ढूँढ़ता आज भी जाता हूँ उन्हें
उन सड़कों पर, जो जंगल की और जाती है पर 
नहीं दिखतें है वो,
उनकी रौशनी बिना रात अधूरी लगती है. भले ही
हमने दिवाली के लिए जुगनू लाइट बना ली हो


पर रात में अचानक उड़ती रौशनी को देखना और उसके पीछे दौड़ने का मज़ा ही कुछ और होता है पर अब कहाँ ढूँढू उन्हें मैं.
माना की उनमें से कुछ को पकड़कर कर एक बार बोतल में बंद किया था और दिन के लिए रख लिया था पर जो भी किया था उनकी रौशनी के लिए किया था. जानना चाहता था कि उनके पीछे बल्ब लगा हुआ है क्या और अगर लगा भी हुआ है तो तार क्यों नहीं दिखता और सुबह ये लोग कहाँ चले जाते है ? पर सुबह उनकें बॉडी में आत्मा न पाकर अपने आप को बड़ा पापी  महसूस किया उस दिन से प्रॉमिस भी किया की अब कभी नहीं कैद करूँगा किसी को. भगवन ने जिसको जैसा बनाया है उसे वैसे ही रहने दो और उनकी लाइफ में कोई दखलंदाजी मत करो. पर अब तो मैं ऐसा नहीं करता फिर भी क्यों नहीं दिखतें यूँ ही रात बीत जाती है आर्टिफीसियल रौशनी के नीचें पर वो शाम आज भी नहीं दिखती जब हम होते थे जुगनुओं के बीच.

                कभी-कभी सोचता हूँ वो भी बड़े हो गए होंगे हमारे जैसे क्यूंकि जब हम

बच्चें थे तो बहुत ही धमाचौकड़ी  मचाया करते थे शाम होते ही  पूरे गाँव में दौड़ना शुरू और फिर

छुप्पन-छुपायी खेलना, इसी बीच जुगनू भी अपने घरों से निकल आतें थे पर जैसे-जैसे गाँव शहर 

बने और हम बड़े हुए जुगनू भी बड़े होते गए उन्हें भी हमारे जैसे अपने कल की चिंता सताने लगी

 होगी और वो भी अपनी जिंदगी को बेहतर बनाने अपने कैरिएर को लेकर कही और शिफ्ट हो गए 

होंगे.




Friday, April 20, 2018

दिहाड़ी मज़दूर



बस जाती है कई बस्तियां, एक शहर को बसाने में। 

अपने गावों  से चलकर रोजी-रोटी के लिए  शहर को आ जातें है ये लोग,  फिर बस जाती है कई बस्तियाँ एक शहर को बसाने में, पर कहाँ चले जातें है? ये  शहर को बसाने वाले, और कौन होते है ये लोग?

दिहाड़ी मजदूर, जिसकी सुबह इस संशय में  होती है कि आज उसे काम मिलेगा या नहीं। नहा- धोकर  सुबह ही पहुंच जातें है लेबर अड्डे पर जहाँ से उन्हें काम मिलना होता है. ये वो लोग होते है जो थोड़ा बहुत पढ़े-लिखें  होते है पर गरीबी के कारण इन्हें अपने गावों से शहरों की तरफ पलायन करना पड़ता है. 2 जून की रोटी जुटाने लिए  इन्हें तपती  मई में भी काम करना पड़ता है. इनको न  तो गर्मी चुभती है और  न ही ठण्ड कपाती है. जाड़ा हो या गर्मी ये अपने बच्चें लिए निर्माणस्थल पर काम करते है. कोई नहीं होता वहां इनके बच्चों  की देख-रेख करने वाला. सुबह 9 बजे से  लेकर शाम के 5  बजे तक इन्हीं मजदूरी करनी होती है और सारे दिन कड़े शारीरिक श्रम के बाद इन्हें मजदूरी में सिर्फ दो-ढाई सौ रुपया मिलते है जिसमें इनको अपने परिवार का पालन-पोषन करना होता है.


पेन मेरा

आज पेन को देखकर याद आया कब से खाली पड़ा था ये कागज़ जिसे हमेशा ये सोचकर संजोय रखता था की जब लिखूंगा इसपे कुछ लिखूंगा  और ये कहकर न जाने कितने ...